सैकड़ों फूस की झोपड़ियां। जर्जर मकान। सार्वजनिक शौचालयों से आ रही बदबू के बीच टीन-शेड में जगह के लिए हो रही जद्दोजहद। और, उनके बीच से होकर गुजरने वाली एक संकरी खस्ताहाल गली। ऐसे रामापीर टेकरा में आपका स्वागत है। जी हां, अहमदाबाद के वडाज इलाके की खास झुग्गी बस्ती में, जिसमें लगभग 150 आदिवासी प्रवासियों का घर है।
उनमें से लगभग 70 प्रतिशत अकेले रहने वाले पुरुष प्रवासी होंगे। 20 से 35 साल की उम्र के बीच के, जो अपने परिवार को पड़ोसी राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में छोड़कर निर्माण स्थलों पर जीवन यापन कर रहे हैं। कहना न होगा कि वे छह और सात के समूह में 8X10 वर्ग फुट वाले शेड में मुश्किल से ठसाठस भरे रहते हैं। कमरों में लगभग कोई वेंटिलेशन नहीं है।
सोशल डिस्टेंसिंग? कोविड हो या न हो, वे इस मध्यवर्गीय विलासिता को नहीं झेल सकते। भोजन के लिए उनके पास प्रवासी श्रमिकों के बीच काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) आजीविका ब्यूरो की ओर से बनाया गया एक सामुदायिक रसोई है।
स्वास्थ्य सेवा के नाम पर कुछ खास नहीं है। उतना भी नहीं, जितना आम तौर पर एक सामान्य शहरी व्यक्ति के पास होता है। ऐसे में कोविड-19 से बचाव वाली सुई उन्हें डराती है। रामापीर टेकरा के इन 150 मजदूरों में से किसी ने भी अभी तक कोविड-19 का टीका नहीं लगाया है।
उनमें सबसे बड़े हैं 50 वर्षीय मोतीलाल मीणा। वह हेल्पर के रूप में एक निर्माण स्थल पर 500 रुपये की दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। कहते हैं कि उनके गांव में कोविड-19 का टीका लेने के कुछ दिनों बाद ही एक नेता की मृत्यु हो गई थी। इसलिए उन्हें टीका लेने में डर लगता है। वह कहते हैं, “अगर मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो गया तो क्या होगा? मेरे परिवार की देखभाल कौन करेगा? मैं 25 साल से काम कर रहा हूं और सात सदस्यों वाले अपने परिवार में मैं अकेला कमाने वाला हूं।” यह पूछने पर कि क्या वह जिस साइट पर काम करते हैं उसके मैनेजर ने उन्हें टीका लगवाने की पेशकश की है, मोतीलाल ने कहा- नहीं।
एक अन्य दिहाड़ी मजदूर धुलदी मीणा (47) बताते हैं, “जब दूसरी बार लॉकडाउन की घोषणा हुई तो हम सभी राजस्थान में अपने गांव वापस चले गए थे। हम लगभग दो हफ्ते पहले ही वापस आए हैं। ”
आजीविका ब्यूरो के प्रोग्राम मैनेजर महेश गजेरा के साथ बंधकाम मजदूर संगठन (निर्माण श्रमिक संगठन) के संयोजक विपुल पंड्या ने भी इस बात की पुष्टि की कि रामापीर टेकरा में रहने वाले 150 निर्माण श्रमिक ही इस तरह की सोच रखने वाले नहीं हैं।
हालांकि राज्य सरकार के पास स्पष्ट डेटा नहीं है, फिर भी पांड्या कहते हैं कि गुजरात में 70 लाख प्रवासी मजदूर होने का अनुमान है। इनमें से कई ने खुद का टीकाकरण नहीं कराया है। पूछने पर उनका कहना है कि निर्माण श्रमिकों को टीका लगाने के लिए कोई विशेष प्रयास किया ही नहीं गया है। वह कहते हैं, “टीका लगवाने की जवाबदेही खुद श्रमिकों पर ही छोड़ दी गई है।”
गुजरात भर में प्रवासी कामगारों की आशंकाएं वही हैं, जो रामापीर टेकरा में रहने वालों में पाई जाती हैं। आदिवासी कार्यकर्ताओं का जिक्र करते हुए गजेरा और उनके एनजीओ के सदस्यों को समान प्रतिक्रियाएं मिली हैं। उनका कहना है कि गहरे अविश्वास और आदिवासियों के वर्षों के अलगाव के कारण वैक्सीन के लिए उन्हें तैयार करने का काम उनकी सोच से भी कठिन हो गया है।
महेश गजेरा कहते हैं, “जिन लोगों से हम मिले, उनमें से कुछ ने कहा कि कोरोना वायरस उन लोगों को प्रभावित नहीं करता है जो कड़ी मेहनत करते हैं और पसीना बहाते हैं। यह वातानुकूलित कमरों में रहने वालों को पकड़ता है। उन्होंने स्पष्ट रूप से इसे अपने ठेकेदारों से सुना है जो श्रम पर पूंजी को प्राथमिकता देते हैं। ” आजीविका ब्यूरो के अनुमानों के मुताबिक, अहमदाबाद में कम से कम 10.3 लाख प्रवासी श्रमिक हैं, जो इसकी आबादी का 23% है।
गजेरा ने कहा, “निर्माण में लगे लोग गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश के आसपास के आदिवासी बहुल जिलों से आने वाले एसटी श्रमिक हैं। “
पांड्या कहते हैं, “इनमें से लगभग एक लाख निर्माण क्षेत्र में काम करते हैं, जिनमें आदिवासी प्रवासी श्रमिकों की भागीदारी 40 से 50% है।”
जब जांचा गया, तो गोटा में प्रधानमंत्री आवास योजना निर्माण स्थल पर एक ठेकेदार ने कहा कि उसके सभी कर्मचारियों को टीका लगाया गया था। लेकिन साइट पर काम करने और रहने वाले दिहाड़ी मजदूरों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। शहरी आवास भूखंड में श्रमिकों के बच्चों के लिए एक आंगनवाड़ी केंद्र भी है, जो बिना किसी सुरक्षा उपकरण के लगभग 8 घंटे भीषण गर्मी में बिताते हैं, जिसमें मास्क भी शामिल है।
साइट पर मौजूद लीला भूरिया (22) नाम की मजदूर ने कहा कि वह मास्क पहनने के महत्व को समझती है, लेकिन गर्मी और भारी काम उन्हें पहनना असंभव बना देते हैं।
डेटा के अनुसार, भारत ने अपनी आबादी का लगभग 24% टीकाकरण किया है, जिनमें कम से कम 6.8% का पूर्ण टीकाकरण हो चुका है और 18% का आंशिक रूप से टीकाकरण किया गया है। गुजरात में 3.2 करोड़ से अधिक को टीका लग चुका है। इनमें से 2.46 करोड़ को पहली बार और 76 लाख को 3 अगस्त, 2021 तक टीके की दोनों खुराक पड़ चुकी है।
को-विन पोर्टल से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक, इनमें टीका लगवाने वाले पुरुषों की संख्या महिलाओं से लगभग 9% अधिक है।
अंतर के कारण को पांच बच्चों की मां और खुद एक दिहाड़ी मजदूर बादली भूरिया (30) ने बताया है। उन्होंने कहा, “अगर हम बीमार पड़ गए तो बच्चों की देखभाल कौन करेगा? कौन खाना बनाएगा और घर के दूसरे काम कौन करेगा? साथ ही हमारे ऊपर भी है, जिन्हें चुकाना है। एक दो दिन काम न करने का मतलब होता है- वेतन नहीं। मैं नहीं चाहूंगी कि मेरे पति भी वैक्सीन लें।”
उनके ठेकेदार इसकी पुष्टि करते हैं कि बादली की तरह साइट पर किसी भी दिहाड़ी मजदूर ने अब तक टीका नहीं लगाया है।