वैसे तो महामारी से पहले भी गुजरात में पांच में से चार बच्चे (79.7 प्रतिशत) एनीमिया से पीड़ित थे। यह देश में किसी भी राज्य में सबसे अधिक है। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 5 के अनुसार, अब स्थिति इससे भी बदतर हो गई है।
अहमदाबाद में आर्थिक रूप से पिछड़े यानी ईडब्ल्यूएस आवास में रहने वाली दो बच्चों की मां मधुबेन कहती हैं, “लॉकडाउन के दौरान हमारे पास कोई काम नहीं होने से पैसा भी नहीं था। इसलिए हमने उधार लेकर उन्हें खिलाया, जो हम कर सकते थे। ” केशवानीनगर, ईडब्ल्यूएस और गणेशनगर जैसे शहरी मलिन बस्तियों में कई माताओं ने स्कूल और आंगनवाड़ी बंद होने के कारण जन्म के समय अपने बच्चों के वजन में गिरावट देखी, क्योंकि महामारी ने जीवन और आजीविका दोनों चुरा ली। शुरुआती सर्वेक्षणों से पता चलता है कि इन शहरी मलिन बस्तियों के लगभग 80 प्रतिशत परिवारों ने लॉकडाउन के दौरान औसतन 16,000 रुपये उधार लिए।
अहमदाबाद में आठ मलिन बस्तियों में मातृ स्वास्थ्य और बाल पोषण सेवाएं प्रदान करने वाली एक सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और स्नेहा पोषण केंद्रों की परियोजना समन्वयक हेतवी शाह ने कहा, “महामारी के दौरान 5 साल से कम उम्र के बच्चों में गंभीर कुपोषण में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई।”
गुजरात में महिलाओं में एनीमिया भी भारत में सबसे ज्यादा है। 2019-20 में गुजरात की लगभग 65 प्रतिशत महिलाएं एनीमिक थीं, जो 2015-16 से 10 प्रतिशत अधिक थी। यह न केवल महिलाओं के स्वास्थ्य और कल्याण को प्रभावित करता है, बल्कि उनकी मातृत्व और नवजात पर प्रतिकूल परिणामों के जोखिम को भी बढ़ाता है।
चेतना फाउंडेशन की निदेशक पल्लवी पटेल ने कहा, “क्षेत्रों में दौरे के दौरान हम ऐसी महिलाओं से मिले हैं जो महसूस करेंगी कि बच्चा उनकी गोद या बाहों से गिर रहा है, और उन्हें उठाने की ताकत नहीं है। वे इतनी कमजोर पड़ गई हैं। ”
जब शाह और चेतना फाउंडेशन ने इलाके में काम करना शुरू किया तो इन शहरी झुग्गियों में करीब 46 फीसदी बच्चे और 30 फीसदी गर्भवती महिलाएं कम वजन की थीं। हालात बेहतर तब होने लगे, जब केंद्र ने गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों के लिए पोषण से भरपूर भोजन उपलब्ध कराने, माताओं के लिए खाना पकाने और बच्चों की उम्र के अनुसार उनके वजन की निगरानी जैसे कार्यक्रम शुरू किए। हालांकि कोविड-19 ने ऐसे कई कार्यक्रमों पर विराम लगा दिया है।
शाह और पटेल के अनुसार, शहरी मलिन बस्तियों में कुपोषण का एक प्रमुख कारण बच्चों और माता-पिता की डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों पर बढ़ती निर्भरता है, जिन्हें वे “पड़िकिया” कहते हैं। उन्होंने कहा, “माताएं एक वर्ष से कम उम्र के बच्चों को पोषण रहित ऐसे खाद्य पदार्थ खिलाती हैं, क्योंकि वे सस्ते, आसानी से सुलभ और समय बचाते हैं। खासकर जो माताएं दिहाड़ी मजदूर हैं। बच्चे भी इसके लिए दबाव देते हैं, क्योंकि इनकी पैकेजिंग चमकदार और रंगीन होती है और अन्य बच्चे इसे ले रहे होते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह, कि महिलाओं को अच्छे पोषण के बारे में जानकारी ही नहीं है।” इन पाड़िकियों और तंबाकू के साथ ऐसे किराना स्टोर हर कुछ घरों पर आसानी से मिल जाते हैं। इस क्षेत्र में केवल दो आंगनवाड़ी केंद्र हैं। ईडब्ल्यूएस में दोनों मां यानी मधु और दरियाबेन का अनुमान है कि वे अपने बच्चों के लिए भोजन के ऐसे पैकेटों पर प्रतिदिन 50 रुपये खर्च करती हैं।