एक समय बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को छोड़कर उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों के लिए उनका नाम आतंक, धमकी और क्रूरता का पर्याय था। फिर भी वे उसकी कद्र करते थे, क्योंकि वह एक जरूरतमंद दोस्त था। 1993 में पहली बार चुनाव लड़ने के बाद से वह कभी कोई चुनाव नहीं हारे। उन्होंने भाजपा और समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ संबंध बनाए। फिर मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव, कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली प्रदेश सरकारों में मंत्री रहे। हालांकि कल्याण सिंह ने उन्हें “कुंडा का गुंडा” करार दिया था।
लखनऊ के दक्षिण-पूर्व में लगभग 150 किलोमीटर दूर कुंडा प्रतापगढ़ जिले की एक तहसील है। यह रघुराज प्रताप सिंह द्वारा शासित एक रियासत थी, जिसे लोग आज भी श्रद्धापूर्वक राजा भैया कहते हैं। सिंह अपनी ही पार्टी जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) के उम्मीदवार के रूप में चल रहे विधानसभा चुनावों में सातवीं बार चुनाव लड़ रहे हैं। अचरज की बात यह कि उनका चुनाव चिह्न तेज-दांतेदार आरी है।
इस बार सपा नेता अखिलेश यादव ने कुंडा में मैदान छोड़ देने के विचार को खारिज कर दिया और सिंह के खिलाफ प्रतिद्वंद्वी को खड़ा कर देने का फैसला किया। वह 38 वर्षीय गुलशन यादव है, जो सिंह का पूर्व सहयोगी था। स्थानीय लोगों के अनुसार, वह उनका साथ छोड़ देने के बावजूद “चमत्कारिक रूप से” बच गया। अपने चुनाव चिन्ह आरी के समान ही वह अपने विरोधियों के प्रति क्रूर हैं, भले ही कोई कभी उनके करीब ही क्यों न रहा हो। हालांकि यादव ने अपने पूर्व गुरु के खिलाफ पूरे जोश के साथ युद्ध छेड़ दिया। सपा ने इस सीट को इतनी गंभीरता से लिया कि अखिलेश ने कुंडा में एक बड़ी सभा भी कर दी।
कुंडा की लड़ाई दरअसल एक गहरी प्रवृत्ति को दर्शाती है: सिंह ठाकुर यानी राजपूत हैं और आज के परिवेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन में ठाकुरों के खुले और अनुचित संरक्षण के लिए “ठाकुरवाद” को दर्शाता है। ठाकुर प्रभाव को कुंद करने के लिए भाजपा ने ब्राह्मण सिंधुजा मिश्रा को खड़ा किया। उनके चुनाव प्रबंधक प्रथमेश मिश्रा का दावा है कि, “सिंधुजा बदलाव चाहती हैं, क्योंकि सरकार द्वारा वितरित किया गया राशन यहां लोगों तक कभी नहीं पहुंचा। हमें विश्वास है कि हम इतिहास को फिर से लिखेंगे।”
यादव की उपस्थिति विडंबनापूर्ण रूप से सिंह के व्यक्तित्व और उनकी सामंती शैली की राजनीति के प्रति लंबी और गहरी दुश्मनी के तौर पर सतह पर उभरी। इसलिए कि वह अक्सर जिस “विकास” का दावा करते थे, वह सड़कों और घरों के निर्माण के बारे में नहीं था। बल्कि जमीन के स्वामित्व पर पारिवारिक विवादों और कलहों को निपटाने के बारे में था। . कुंडा में नतीजे की परवाह किए बिना यादव को एक गंभीर उम्मीदवार के रूप में माना जाता है।
प्रचार के आखिरी दिन हिन्नाहू गांव में एक ने यादव के भाई दीपक के नेतृत्व में सपा कार्यकर्ताओं के काफिले को पकड़ लिया। दीपक कहते हैं, “यहां विकास ‘गुंडा राज’ का पर्याय है। राजा ने जो कुछ भी दिया, उससे केवल एक जाति को लाभ हुआ। हमारे लिए तो प्रत्येक परिवार से एक वोट भी काफी होगा।”
वर्षों से इस जर्जर जगह को जिसने कवर किया है, उसे पता है कि यहां सड़कें और नलकूप उस समय की सरकार की ही देन है। यहां के मतदाता तो हमेशा भयभीत और चुप रहते थे। चाहे कोई उनसे बाजार में मिले या उनकी बस्तियों और घरों में, उनसे बुलवाना असंभव था। मतदाता अब अधिक जोशीले और कम डरे हुए लग रहे थे।
रहमत अली का पुरवा गांव में रहने वाले सुरक्षा गार्ड ज्ञानचंद कहते हैं, “कुंडा एक पुश्तैनी सीट है, लेकिन लोग बदलाव चाहते हैं। क्या यह ‘बाहुबली’ द्वारा शासित स्थान पर संभव है, यह देखना होगा।” ज्ञानचंद एक दलित पासी हैं। उनका स्पष्ट कहना था कि शिक्षित पासी यादव को वोट देंगे, बाकी लोग सिंह को वोट देंगे। उसी गांव के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक अमरनाथ यादव कहते हैं, “मुख्य उद्देश्य राजा को हराना है। लेकिन उनके पास स्थानीय प्रभावशाली लोगों का एक शक्तिशाली नेटवर्क है, जो मतदाताओं को धमकाएगा। ”
गौरतलब है कि कुंडा में 27 फरवरी को मतदान हो चुका है, जिसमें हिंसा भी हुई। बता दें कि पहले के चुनावों में यहां अनिवार्य रूप से एकतरफा हिंसा होती थी। यादव के समर्थकों को कथित तौर पर पीटा गया, उनके वाहन पर हमला किया गया और सिंह के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई।
बरईका पुरवा बरयानवां गांव में राम लखन यादव बताते हैं कि यादव का चुनाव करना क्यों महत्वपूर्ण था। वह कहते हैं, “यह मेरी जाति के बारे में नहीं है, जैसा आप सोचती हैं। मैंने पहले राजा और भाजपा को वोट दिया था। लेकिन इस बार हमारी समस्याएं इतनी अधिक हैं कि हमें यूपी में नई सरकार लाने की जरूरत है। इसलिए हर सीट मायने रखती है। महंगाई ही नहीं, हमारे खेतों से कोई उपज तक नहीं मिलती, क्योंकि दुष्ट मवेशी कुछ भी नहीं छोड़ते हैं। ऊपर से सब्सिडी खत्म हो गई है। हमें उज्ज्वला (एलपीजी) योजना के तहत कुछ भी नहीं मिलता है।”
कुछ दलित घरों वाले बनियों के प्रभुत्व वाले पुरानी बाबूगंज गांव में एक दलित जाटव तांगा चालक रमेश चंद ने राम लखन यादव की बातों का समर्थन किया।” कहा, “राजा पहली बार मुश्किल में लग रहा है। लेकिन हम चुप हैं, क्योंकि अगर कुछ बोलेंगे तो मुश्किल में पड़ जाएंगे।”
52 साल के सिंह को अखिलेश यादव से पहले सिर्फ एक राजनीतिक दुश्मन थी: मायावती। 2002 में मुख्यमंत्री के रूप में (भाजपा के समर्थन से), मायावती ने उन्हें, उनके पिता उदय प्रताप सिंह और भाई अक्षय प्रताप सिंह को आतंकवाद निरोधक अधिनियम- 2002 यानी पोटा के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था। सिंह पर दंगा भड़काने, रंगदारी, लूट, मारपीट, अपहरण और हत्या का आरोप था। 2003 में जब मुलायम सिंह यादव मायावती के उत्तराधिकारी बने, तो उन्होंने सिंह के खिलाफ सभी आरोप हटा दिए। फिर उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर उन्हें जेड श्रेणी की सुरक्षा दी। 2007 में जब मायावती सीएम के रूप में लौटीं, तो उन्होंने उन्हें एक पुलिस अधिकारी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया।
पारिवारिक महल के पीछे 600 एकड़ में फैली झील
कुंडा के भद्री एस्टेट में सिंह के पारिवारिक महल के पीछे 600 एकड़ में फैली झील उनके और मायावती के बीच बड़े झगड़े का विषय थी। स्थानीय मान्यता है कि झील में मगरमच्छ थे, जिन्हें मानव मांस खिलाया जाता था। सिंह ने एक साक्षात्कार में ऐसी कहानी को हंसी में उड़ाते हुए कहा था कि झील इतनी सुरक्षित थी कि उसमें उनके बच्चे तैरते थे। लेकिन मायावती अडिग थीं और उनकी सरकार ने झील को अपने कब्जे में ले लिया। फिर उसका नाम बदलकर भीमराव अंबेडकर पक्षी अभयारण्य कर दिया गया।
एक और बात है। वह यह कि लगभग 90 वर्ष के हो चुके सिंह के पिता हर सुबह कुंडा-हरनामगंज रेलवे स्टेशन जाते हैं और यात्रियों को टिफिन के पैकेट सौंपते हैं। सिंह सीनियर की उस बेटे की तुलना में अधिक कठिन प्रतिष्ठा थी। माना जाता है कि अभी भी उनका खौफ है। रमेश चंद कहते हैं, “यह अपने प्रजा पर हुए कष्टों के लिए प्रायश्चित करने का पिता का तरीका है।”
2022 का चुनाव उस घराने के लिए पहला रियलिटी चेक है, जिसने यह मानने से इनकार कर दिया है कि राजशाही अतीत की बात थी।